Tuesday, April 10, 2012

गीला सा धुआ,बुझी सी बारिश
चाँद और सूरज , संग निकले
मेरी कलम से स्याही नहीं
आज कई सारे रंग निकले

चहक निकली, महक निकली
तेरी हँसी और कुछ कलियाँ
माचिस कि डिब्बी में बंद,एक जुगनी
और चादर भर कर तितलियाँ

दिन निकले , रातें निकली
बिन सर-पैर कि तेरी बातें निकली
किस्सों से भरी एक बड़ी सी घठरी
कच्ची सड़क ,कुछ रेल कि पटरी

निकला तो बहुत कुछ,पर जाने दो
अब घडी सुबहा को  मुड रही है
पर हाँ ,अब डिब्बी से आज़ाद ,
जुगनी मेरे कमरे मैं उड़ रही है

- कृष्णेंदु

Saturday, December 31, 2011


पिंजरे में पंख फैलाये,एक अरमान से बैठे हैं
डाकिये कि थैली में,एक बेरंगी पैगाम से बैठे हैं
नदी में उतरती,उन फिसलती सीडियों पर 
आँखें मूँद ,मुस्कुराते एक नादान से बैठे हैं

यूँ तो बाहर निकले ,बरसों हो गए
पर सुना है अपने यारों से अब
कि उन रंगीन मैखानो में आज भी
हम उनते ही बदनाम से बैठे हैं

और अब कौनसा हम नीद उड़ायें
तेरी याद में परेशान से बैठे हैं ?
जिन्हें फिक्र नहीं अब हमारी सुनले ज़रा ..
अजी हम अपने घर,अब आराम से बैठे हैं |

- कृष्णेंदु

Friday, November 11, 2011

मेरे पहला प्रयास ..आपकी प्रेरणा मिले ,तो बन जाये उपन्यास ..धन्यवाद |

कल रात मैं सो नहीं पाया| नहीं इस बार तुम नहीं थी | वोंह रातें बीत चुकी है ,जब तुम्हारी यादों में अक्सर जगा रहता था | शायद कल खिड़कियाँ कुछ खुली सी रह गयी हों,जाड़े के साथ,कुछ उदासी भी कमरे को घर कर गयी | सुबह हुई और रोज़ कि तरह घडी मेरे साथ दौड़ लगाने को तैयार बैठी थी , पर शायद उसे महसूस हुआ, कि आज उसे अव्वल आने में वोंह ख़ुशी नहीं मिलेगी जो उसे रोज़ मिला करती थी ,शायद इसलिए आज उसने आवाज़ ही न दी |काफी देर तक यूँ ही बिस्तर पर पड़ा रहा| फिर जब उस खुली सी खिड़की से कुछ सारी धूप भी अन्दर आने लगी,कमरे में बड़ती हुई इस भीड़ से दूर जाने के लिए ,न चाहते हुए भी में उठा और उस कुछ खुली से खिड़की को बंद करने पहुंचा ,तब अहसास हुआ कि बाहर कि दुनिया कब की काम पर चल पड़ी है | मैंने उस खिड़की को पूरा ही खोल दिया | मेरे हाथ उस आखिरी सिगरेट को ढूँढ रहे थे जिसे शायद कल रात वहीँ रख छोड दिया था | कुछ पहल करने पर हाथ आ गयी, उसे सुलगा कर वहीँ कुर्सी पर बैठ गया | खिड़की से बाहर कि दुनिया मुझे वैसे भी रास न आने वाली थी , मेरी नज़रें  अपने बिखरे हुए टेबल कि तरफ चल दीं , बहुत सारा सामान पड़ा हुआ था ,पर ऐसा लगा मानो उस  टेबल पर मेरी ज़िन्दगी सिमटी हुई सी रखी थी | कुछ रसीदे ,कुछ किताबें,उन्खुली चिट्टियाँ,मेरी घडी,चिल्लर से भरा हुआ एक कप ,कुछ फाइल,एक लैपटॉप, एक चाय का गिलास,गिटार के तार,बीते हुए साल कि कुछ ग्रीटिंग कार्ड,और कुछ दिनों पहले का अख़बार ,जिसे मैंने अपनी कलम से कई बार गोदा था,एक नायिका कि तस्वीर जिसकी मैंने दाड़ी-मूछ निकाली थी ,उस अखबार को हटाने पर चाय के गिलास के छोड़े  कुछ निशान मिले | वहीँ किताबो के बीच मेरा पुराना कैमरा मिला ,कभी मैंने उससे तम्हारी कई सारी तस्वीरे ली थी , कुछ तुमे बता कर , कुछ तुमसे छुपाकर |कभी ये तस्वीरे मेरे टेबल पर रखी हुई फोटो-फर्मे पर दिन भर घूमा करती थी | और कभी किसी के पूछने पर में बस मुस्कुरा दिया करता  था | पर न जाने कब वोंह तस्वीरे फीकी पड गयी | अब उस  फोटो फ्रमे कि जगह एक टेबल लेम्प है,जिसकी रौशनी का रंग भी मुझे याद नहीं| बची हुई सिगरेटे को बुझाकर , उस खुली खिड़की को पूरा बंद कर में वापस अपने बिस्तर पर आ बैठा | जब घडी पर नज़र पड़ी तब पता चला दबे पाव उसकी सुईयां काफी आगे निकल चुकी थी | उसे एक चक्कर जो पूरा करना था ,कल सुबह के दौड़ के लिए |

  - कृष्णेंदु

Wednesday, May 25, 2011

अपने यारों  के भी खूब अंदाज़ निकले
बात निकली तो हमपे ही सारे इल्जाम निकले
जो खता कभी हुई न हमसे ,उनपे वोंह नाराज निकले
गुज़ारे हुए वक़्त के एक एक अहसान निकले

जली कटी सी बातें निकली, बुझे हुए से अरमान निकले
कुछ खाली बोतेलें निकली और कुछ सारे सामान निकले
जो कभी न चुकता हुए , वोंह सारे उधार निकले
निकले तो क्या निकले ,सब के सब बैमान निकले

मेरी ज़िन्दगी ,मेरी हालत से सारे अंजान निकले
चलो आज भी याद हूँ , इनता वोंह महरबान निकले
क्या जुर्रत हमारी  कि उन से पेच लड़ा पातें
साले हमसे भी बड़े पतंग-बाज़ निकले  !

कृष्णेंदु

Friday, December 31, 2010

नव उमंग ,नव रस
नव वर्ष का पावन स्पर्श
नव चेतना , नव आदर्श
नव योवन ,नव संघर्ष

गर हो अंधकार,राह न मिले
गर हो व्यथित,प्रवाह न मिले
उठो,कुमुद नहीं तुम कुंदन हो
केवल रंग नहीं,रक्त चन्दन हो

नव रथ के तुम हो योद्धा
शून्य से प्रारम्भ करो
नव पथ का निर्माण करो
लो आज से आरम्भ करो


-------कृष्णेंदु--------




Monday, November 15, 2010

कई बार सोचा है कि तुझे न सोचूँ
न तेरा रूठना और मेरा मनाना सोचूँ
न तेरे लबोँ को, न तेरी हँसी सोचूँ
तुझे न सोचने का हर बहाना सोचूँ

न तेरी आहट,न तेरा अहसास सोचूँ
न तेरी ऑंखें और न आवाज़ सोचूँ
न तेरी महक न तेरा अंदाज़ सोचूँ
तुझे न सोचने का बस आगाज़ सोचूँ

न संग बिताये दिन,न वोंह रातें सोचूँ
न वोंह कशिश ,न वोंह बातें सोचूँ
न तेरी अंगड़ाई ,न तेरा बदन सोचूँ
तुझे न सोचने का हर जतन सोचूँ

तुझे न सोचने कि सोच कर भी
बस तुझे ही सोच कर रह गया
और जो कभी तुझे सोचा मैंने
बस तेरी ही सोच में बह गया

------कृष्णेंदु -----


Friday, September 17, 2010


इस सुस्त सी ज़िन्दगी में कुछ नया करें
सब मिल बैठ कर हाल चाल बय़ा करें
भीनी भीनी फिज़ा का अहसास भी हो
और अपने सब यार दोस्त पास भी हो

इस शहर को छोड़ कर ,कोई गाँव चले
जहाँ धूप हो सुनहरी और संग छाव चले
जहाँ हो कश्तियाँ और बड़ा समंदर भी
और उमड़ती लहरों पर मेरी नाव चले

कुछ पल ही सही सुस्ताले अगर
इस शहर से चालो संगीन हो जाये
दूर किसी पहाड़ों पर ,तारों के तलें
एक रात ही सही ,बस रंगीन हो जाये

कृष्णेंदु

Thursday, September 9, 2010

---------- भांग-------------
साधुओं कि तपस्या , प्रभु को नमस्कार है भांग
भुजते मन को लो , प्यारी का आकार है भांग
सदियों से सभ्यता को जो स्वीकार है भांग
छोटा सा क़स्बा नहीं ,एक पूरा संसार है भांग

न पिंक फ्लोयड होते,न कोबेन होते
इन गवैयों का जो राग है भांग
एक सवरतें चित्र से उड़ते रंगों का
सुस्वर मंद पराग है भांग

थोडा प्रयत्न करके ,अगर ठीक से समझो
तो जीवन का एक प्रमुख अद्याय है भांग
हो सके तो उन सबको खोज निकालो
भीड़ मैं घुला हुआ,एक सुभोद समुदाय है भांग

- कृष्णेंदु

Sunday, August 1, 2010

खुदा हो न हो , मेरे दोस्त हैं,बहुत हैं
तुम जुदा, हो न हो,मेरे दोस्त हैं,बहुत है
बेज़ार समंदर और कश्तियाँ ,हो न हो
मेरे दोस्त हैं ,जी बहुत है

ज़ाबित ज़िन्दगी लाखो सवाल करती हैं
जवाब हो न हो ,मेरे दोस्त हैं,बहुत है
अब इस यासार जिंदिगी में कोई
आरज़ू हो न नो ,मेरे दोस्त हैं ,बहुत है

मज़िलें अभी हसिल, हो न हो
सफ़र में ,मेरे दोस्त हैं ,बहुत है
अब तुमसे और क्या मांगे ज़िन्दगी
शुकरिया, मेरे दोस्त हैं ,अजी बहुत हैं

- कृष्णेंदु

Monday, February 15, 2010

इश्क हो जो तो बता दो अभी, मिझे और भी काम बहुत हैं ..
हाँ इस बेरुखी के लिए , वैसे भी
हम बदनाम बहुत हैं

फुर्सत नहीं हैं हमे , कि बैठे रहे तेरा इंतजार करें
कि कब
हज़ूर मिले और हम इज्हार करें ..

उम्र भर बस बैठे रहे,बस इक तेरे इंतजार में
और भी क्या नजाने करतब,बस एक तेरे प्यार में ?

बस क्या मुस्कुराना छोड़ दे, पीर बन जायें ?
तन्हाई की कोई , रोंदू सी तस्वीर बन जाये

चले छोड़ें जी,ये सब कुश्ती हमसे न होगी
बहुत उफान है प्यार में, एक तूफ़ान है प्यार में

जो चलना है साथ अगर, हाथ थामे और चल पड़े
लम्बा सफ़र है ज़िंदगी का, क्यूँ न आज ही निकल पड़े ?

Tuesday, January 12, 2010

नीला भी है ,चमकीला भी है
कुछ लाल रंग ,रंगीला भी है
कुछ धूप सा पीला भी और
कुछ बारिश सा गीला भी है

सूरज चाँद संग दिखते हैं
मुझे कई सारे रंग दिकतें हैं
पाँव ज़मी पर, पर उड़ रहा हूँ
मुझे सुनहरें पतंग दिखतें हैं

हो न हो ये साज़िश हो रही है
भीग चुका मैं सर से पावँ तक
बोलो,मेरी बेरंग सी ज़िन्दगी में
क्यूँ रंगों की बारिश हो रही है ?

-- krishnendu --

Saturday, November 28, 2009


कोई पूछे कि मैं कहाँ जा रहा हूँ ?
एक घर से दूर, एक घर जा रहा हूँ
यहाँ भी अपने और वहाँ भी अपने
ये हवा भी अपनी ,वोह जहाँ भी अपना

कुछ मुस्कुराहटें ,कुछ महकते पल
सफ़र के लिए कुछ सामान रखा है
और भी रखी हैं बहुत सारी यादें
सबके लिए कुछ अरमान रखा है

सब कुछ रख लिया मगर
मेरा यहाँ एक हिस्सा छूट गया
कुछ फुर्सत कि रातें छूट गयीं
और मेरा एक किस्सा छूट गया

लो वक़्त हो चला कि मैं उड़ चलूँ
एक घर को छोड़ , एक घर चलू
अब इन लम्हों के लिए तरसना है
मैं बादल,मुझे कहीं और ही बरसना है

-कृष्णेंदु --



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Thursday, October 1, 2009


सर्द हवाएं बह चलीं है
सर्द हो चला है मौसम
लो जम गयी है बारिशें भी
और धीरे से पिगलता गम

कोई आग तलें थिथुर रहा
कोई सिमट रहा है कम्बलों में
क्यूँ मन घूम रहा है बावरा
बेचैन ,इन यादो के जंगलों में

उड़ चले है परिंदें भी अब
छोड़ के सर्द, जमे घोसले
वक़्त को पीछा छोड़ कर
लो उड़ चलें है इनके होसले

आज बहुत सर्द है रात भी
लो जम गयी है आवाज़ भी
आज सारी याद आ गयी तेरी
मुस्कुराना और ऐतराज़ भी

आज सब कुछ जम गया
फिर सोच क्यूँ नहीं जमी ?
ऑंखें मूँद मैं भी सो पाऊँ
पर शायद है एक तेरी कमी

- कृष्णेंदु

Friday, September 4, 2009


मैं खुद ही मेरा मंदिर
और खुद ही मेरा राम हूँ
मैं खुद ही मेरी मीरा और
खुद ही मेरा श्याम हूँ

मैं खुद हीं मेरी रीत हूँ
मैं खुद ही मेरी प्रीत हूँ
मैं ही खुद मेरी वाणी
मैं ही मेरा संगीत हूँ

मैं ही खुद के शब्द हूँ
मैं ही खुद का कोष हूँ
मैं ही मेरी मूर्छा और
मैं ही मेरा होश हूँ
मैं खुद में खुशहाली हूँ
मैं ही तन हूँ,मैं ही मन हूँ
मुझमें ढूँढो,मैं ही मिलूंगा
मुझ में जीवित मैं जीवन हूँ

मैं ही मेरी परछाई हूँ
मैं खुद मेरा दर्पण
मैं ही मुझमें खोज हूँ
और में मुझमें अर्पण
मैंने सब कुछ जाना है
पर में खुद से मौन हूँ
मैं खुद से ही हूँ पूछता
मैं क्यूँ हूँ ?और मैं कौन हूँ ?

- कृष्णेंदु

Monday, August 17, 2009

हर चेहरा पहचाना सा
इस शहर में अंजान नहीं मिलते
ये वोह पत्थर का जंगल है
जहाँ इन्सान नहीं मिलते

यहाँ रिश्तों नातों के
मिसाल नहीं मिलते
यहाँ किस्से कुर्बानियों के
फिलहाल नहीं मिलते
यहाँ चाहतों की भीड़ में
अरमान नहीं मिलते
लोग मिलते है मगर
पहचान नहीं मिलते
यहाँ नज़रें तो मिलती है
जस्बात नहीं मिलते
यहाँ दिल भी मिला करतें हैं
मगर हालात नहीं मिलतें
यहाँ लाखों ज़ुल्म हुयें
कोई खिलाफ नहीं मिलते
ज़िन्दगी गुज़र जाती है
इन्साफ़ नहीं मिलतें

यहाँ मंजिलों की किसे पड़ी
बस चलतें रहने की होड़ है
इस शहर में, बस मैं निष्चल
यहाँ अंधों की एक दौड़ है


-----कृष्णेंदु-----

Friday, July 31, 2009

भीगा मन,भीगा तन
सब मौसम की हैं साजिशे
पर आज तुम नहीं हो फिर
कुछ कम गीली सी है बरिशे


येह फूल,येह पत्तियां
येह महकती ख्वाइशें
आज तुम नहीं हो फिर
कुछ कम गीली सी है बरिशे

येह भीगी ज़मी की खुशबू
येह बहते हवाओं की गुजारिशें
की आज तुम नहीं हो फिर
कुछ कम गीली सी है बरिशे
--कृष्णेंदु

Tuesday, July 28, 2009




सरल सरस सौंदर्या
मुख पूर्ण चंद्रोदय
सर्व गुण संयोगिता
कमल से कोमल ह्रदय

चंचल चित ,चिर चरित्र
चन्द्रमुखी चंचला
नृत्य करें नैन नक्षत्र
नित्याप्रिया निर्मला

नैन तेरे बाण है
भोह तेरे प्रत्यंचा
इन बाणों की वृष्टि में
सर्व भावों की मंचा

वाणी में है सरस्वती
कर्म में तेरी निष्ठां
ह्रदय में है स्थापित
मानो तेरी ही प्रथिष्ठां

तुम तत्वों का ज्ञान हो
तुम वेदों की शिक्षा
हर जन्म में रहा सदा
मुझे तेरी ही प्रतिक्षा

तुम यश ,तुम कीर्ति
तुम प्रेरणा का कोष हो
तुम ही मेरा जीवन
तुम ही मेरा मोक्ष हो


--------कृष्णेंदु------

Friday, July 24, 2009

कलयुग का रावण


में कलयुग का रावण
क्या मुझे राम मिलेगा ?
सदियों से रहा में पाप का प्रतीक
कब मुझे विश्राम मिलेगा ?
में रावण मेरा दहन नहीं होता
यह मनो आत्मदाह होता हूँ
और में रावण ,हे कलयुग के मानव
दसो सर झुका तेरे पापो पे रोता हूँ
हे मानव तेरे कसबे में क्या
क्या एक भी राम नहीं है ?
कितने पाप करेगा तू
क्या कोई विश्राम नहीं है ?
दसो सरो का भार जैसे
मेरे इन कंधो पर है
तेरे इस समाज के डोर
कुछ पापी अन्धो पर है
में कलयुग का रावण
क्या मुझे राम मिलेगा ?
सदियों से रहा में पाप का प्रतीक
कब मुझे विश्राम मिलेगा ?
-कृष्णेंदु

Wednesday, July 15, 2009




यूँ ही मन को टटोला
और कुछ पुराने याद मिले
वक़्त के कुछ पन्ने पलटे
कुछ भूले से किरदार मिले

कुछ धूल भरी सड़के मिली
कुछ टेडी मेडी गलियां
एक घर ,उसका आँगन मिला
पिंजरे में चहकती एक चिडिया

एक काट का गुड्डा मिला
एक बूडा सा अलमारी
कुछ आंगन की मिटटी मिली
जिसे माँ कहती थी क्यारी

एक कांच का टुकडा मिला
और मिली कुछ सतरंगी धूप
खिल्खिलाता एक बच्चा मिला
मानो मेरे बचपन का रूप

कोने में पड़ा एक संदूक मिला
जो हजारों यादें संजोये था
वोह आज नींद से जाग उठा
बरसो से जो सोये था

-------------कृष्णेंदु ---------

Thursday, July 9, 2009

**अहा ज़िन्दगी !**


अहा ज़िन्दगी !

हसाती है ,रुलाती है
थप्पी देकर सुलाती है
गुगुदाती है ,गुनगुनाती है
और दूर खड़ी मुस्कुराती है

यादों को यादगार बना दो
ज़िन्दगी एक किताब बना दो
वक़्त को पन्ने और
दोस्तों को किरदार बना दो

जी चाहे जीने को
एक और ज़िन्दगी
अरे वाह ज़िन्दगी !
अहा ज़िन्दगी !


--कृष्णेंदु


Wednesday, June 17, 2009

**********आज मन बावरा*************

आज मन बावरा क्यूँ बरस रहा है ?
है क्या उदासी , क्यूँ तरस रहा है ?
यूँ सिसक सिसक कर रो रहा है
जैसे खाली पेट सो रहा है

सो जा ,सो जा रे मेरे मन
आज बस उदास न हो
आज इस एक रात की बात है
आज किसी की तलाश न हो

आज सो जा ,सो जा
आज कोई आवाज़ न कर
आज सो जा ,बस सो जा
आज कोई एहसास न कर

आज न कोई सोच हो ,
आज न कोई फिक्र हो
इतना तो मुझपे अहसान कर
आज तू आराम कर

अब बहुत दिन हो गए
और तू बड़ा उदास है
जो मुझसे दूर चला गया
वोह तुज मैं बहुत पास है

बस आज और सो जा
इतनी सी फरियाद है
तु मुझे से दूर,मैं तुज स दूर
और कल से तू आजाद है

--कृष्णेंदु

****************कटी पतंग**********************


हवा के साथ साथ
एक कटी पतंग चला
कुछ पल के लिए सही
आज तेरे संग चला


हवा चली, उड़ चला
जहाँ मुडी,मुड चला
बांद के सरे रंग चला
रोशनी और उमंग चला

उड़ चला हूँ दूर कही
नहीं तेरी ओर नहीं
एक कटी पतंग हूँ
संग कोई डोर नहीं

फिर चली हवा
और उड़ चला हूँ मैं
तुम न रोको मुझे
बड़ा मन चला हूँ मैं

--कृष्णेंदु


Tuesday, November 11, 2008

****************** निशब्द *****

मेरी दो पंक्तियों की कविता
अधरों पे आतें ही लजा गयीं
सूर्यमुखी तेरे इस तेज़ से
मानो जैसे मुरझा गयीं

मेरी दो पंक्तियों की कविता
छोटीं सी वर्णमाला
कैसे करें तेरा वर्णन
तू ,बच्हन की मधुशाला

मेरी दो पंक्तियों की कविता
मौन है , मूक दर्शक तेरे योवन का
मेरी कविता के सारें शब्द
मानो निशब्द

कृष्णेंदु