Tuesday, April 10, 2012

गीला सा धुआ,बुझी सी बारिश
चाँद और सूरज , संग निकले
मेरी कलम से स्याही नहीं
आज कई सारे रंग निकले

चहक निकली, महक निकली
तेरी हँसी और कुछ कलियाँ
माचिस कि डिब्बी में बंद,एक जुगनी
और चादर भर कर तितलियाँ

दिन निकले , रातें निकली
बिन सर-पैर कि तेरी बातें निकली
किस्सों से भरी एक बड़ी सी घठरी
कच्ची सड़क ,कुछ रेल कि पटरी

निकला तो बहुत कुछ,पर जाने दो
अब घडी सुबहा को  मुड रही है
पर हाँ ,अब डिब्बी से आज़ाद ,
जुगनी मेरे कमरे मैं उड़ रही है

- कृष्णेंदु

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