Thursday, October 1, 2009


सर्द हवाएं बह चलीं है
सर्द हो चला है मौसम
लो जम गयी है बारिशें भी
और धीरे से पिगलता गम

कोई आग तलें थिथुर रहा
कोई सिमट रहा है कम्बलों में
क्यूँ मन घूम रहा है बावरा
बेचैन ,इन यादो के जंगलों में

उड़ चले है परिंदें भी अब
छोड़ के सर्द, जमे घोसले
वक़्त को पीछा छोड़ कर
लो उड़ चलें है इनके होसले

आज बहुत सर्द है रात भी
लो जम गयी है आवाज़ भी
आज सारी याद आ गयी तेरी
मुस्कुराना और ऐतराज़ भी

आज सब कुछ जम गया
फिर सोच क्यूँ नहीं जमी ?
ऑंखें मूँद मैं भी सो पाऊँ
पर शायद है एक तेरी कमी

- कृष्णेंदु

2 comments:

Bohemian said...

Very well written.. easy to conect to heart of anyone who has seen actual winters not like of Mumbai ... Good one after a while from you

Cloud walker said...

krish my dear...its just too good to be a real poem...every line i read,i felt as if its happening for real....keep up the good work!