Monday, August 17, 2009

हर चेहरा पहचाना सा
इस शहर में अंजान नहीं मिलते
ये वोह पत्थर का जंगल है
जहाँ इन्सान नहीं मिलते

यहाँ रिश्तों नातों के
मिसाल नहीं मिलते
यहाँ किस्से कुर्बानियों के
फिलहाल नहीं मिलते
यहाँ चाहतों की भीड़ में
अरमान नहीं मिलते
लोग मिलते है मगर
पहचान नहीं मिलते
यहाँ नज़रें तो मिलती है
जस्बात नहीं मिलते
यहाँ दिल भी मिला करतें हैं
मगर हालात नहीं मिलतें
यहाँ लाखों ज़ुल्म हुयें
कोई खिलाफ नहीं मिलते
ज़िन्दगी गुज़र जाती है
इन्साफ़ नहीं मिलतें

यहाँ मंजिलों की किसे पड़ी
बस चलतें रहने की होड़ है
इस शहर में, बस मैं निष्चल
यहाँ अंधों की एक दौड़ है


-----कृष्णेंदु-----

4 comments:

Cloud walker said...

ek dum sahi kaha...very poetic lines....dil mange more krish bhai....kuch pankthiyan aur likho!!!!!

शारदा अरोरा said...

सचमुच शहर भी जाने पहचाने हैं और लोग भी अन्जान नहीं है , बढ़िया लिखा है |

Bohemian said...

बहुत अच्छा लिखा है दोस्त ... अब तुम पक्के तोर पर उस लिस्ट मैं हो जिसको मैं पड़ना सदा ही पसंद करता हूँ... बस इसे ही अच्छा अच्छा लिखो और ज्यादा से ज्यादा लोगों के ह्रदय को स्पर्श करो....

Unknown said...

Krish, Very well said !!! Good to read it.